सच बोलो,
ईमानदार बनो,
परोपकार करो,
परिश्रमी बनो---
क्या,
बचपन की यह सीखें
थीं केवल
दिग्भ्रमित करने के लिए
या,
उनका उद्द्येश्य था
व्यक्ति,
परिवार तथा समाज
का उत्थान?
तमाम महापुरुषों
की जीवनियाँ
क्या इसीलिये
पढाई,
बताई गईं
कि उनके
बताये रास्ते पर
चल कर कहीं
हम सही
और सीधा रास्ता
न भूल जाएँ?
उम्र में आ चुके हैं
जब हम
बहुत आगे
यह क्यों
महसूस कराया
जाता है
कि हम
गलत ट्रेन में,
बैठ गए
जाना कहीं और था
और चले कहीं
और गए
सही ट्रेन में
बैठने वाले
अपनी मंजिल पर
उतर चुके
बैठ गए हैं हम
'सर्कुलर ट्रेन' में
जो बिना
अपनी मंजिल पर पहुंचे
लगाती रहेगी
गोल चक्कर
और
संभ्रांत परिवार की
इस कुलवधू का क्या होगा?
जिसे शुरू से
सिखाई गयी
लाज, शर्म
बड़ों का सम्मान--- ---
तुम आज उसकी तुलना
एक नगरवधू से कर,
कहते हो कि
नगरवधू होशियार है
संपन्न है
गाड़ी, बंगलों की मालकिन है--- ---
और कुलवधू
नालायक, बेवकूफ
तथा नासमझ है
क्योंकि
नहीं कर सकती वह
कोई बराबरी
फिर,
क्यों बैठाया था,
उसे गलत ट्रेन में?
क्यों नहीं,
उसे भी
शुरू से ही
नगरवधू के कोठे पर
बिठाया?
वह भी
सही
राह पर चलती
और आज के संदर्भ में
होशियार
'डिक्लेयर' होती।
Great Job!Thanks for your tribute on Women's Day.
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