Saturday 2 April 2011

ग़ज़ल

पुकारते हैं हम उनको, वह मुंह मोड़ चले जाते हैं
गुज़ारी है तमाम ज़िन्दगी पीछे परछाइयों के दौड़ते हुए

किस्मतवार हैं वो, जो सो जाते हैं जहां भी जैसे भी
उम्र गुज़ारी है अपनी, अंधेरों को खोजते हुए

जीने औं मरने में ज़्यादा फर्क कुछ समझ न आया
सुबह औं शाम कटी है, जी-जी के मरते हुए, मर-मरके जीते हुए

सीने में दर्द चाहें तो मयस्सर नहीं होती
नज़रें राह में घूमी है, खुशियों को टोहते हुए

आवाज़ मेरी अब पत्थरों से लौट चली आती है
थक गया हूँ मैं रह-रह कर बोलते हुए

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